Ganesha Chatuthi 2022: भारतीय संस्कृति में गणेशजी को प्रथम पूज्य देवता का स्थान प्राप्त है। उन्हें विघ्नहर्ता व ऋद्धि-सिद्धि का स्वामी माना गया है। वे प्रत्येक शुभ कार्य को सफल बनाते हैं, इसलिए हर मंगल कार्य के आरंभ में गणेशजी की वंदना अनिवार्य समझी गई है। कहा भी गया है "वंदे शैल सुतासुतं गणपति सिद्धिप्रदम कामदाम।" दैनिक जीवन के प्रत्येक शुभ अवसर पर गणेशजी का शुभ स्मरण प्रत्येक भारतीय के मन मे अनायास ही हो जाता है। गोस्वामी तुलसीदास जी ने भी मानस में प्रथम पूजिये गौरी पुत्र गणेश...."कह कर श्री गणेशजी की प्रथम स्तुति के साथ उनकी महत्ता प्रतिपादित की है। स्वयं महर्षि व्यास ने "महाभारत" जैसे महाकाव्य की रचना गणेशजी के सहयोग से की। व्यासजी के कथनानुसार ही गणेशजी ने लेखन किया।
गणेशजी के प्रथम पूज्य होने के संबंध में अनेक कथाएं लोकजीवन में प्रचलित हैं। वे रुद्रगणों के अधिपति हैं अतः कार्यारम्भ में उनकी प्रथम पूजा करने से उस कार्य के संपादन में रुद्रगण कोई विघ्न उतपन्न नही करते और कार्य निर्विघ्न सम्पन्न होता है। पद्मपुराण के अनुसार सृष्टि के आरंभ में जब यह प्रश्न उठा कि प्रथम पूज्य किसे माना जाए, तब देवतागण ब्रम्हाजी के पास पहुंचे। ब्रम्हाजी ने कहा कि जो कोई सम्पूर्ण पृथ्वी की प्रदक्षिणा सबसे पहले करेगा, वह प्रथम पूज्य होगा। सब देवता अपने-अपने वाहनों- रथ, अश्व, हाथी आदि पर सवार होकर परिक्रमा हेतु चल पड़े। गणेशजी का शरीर स्थूल है और उनका वाहन मूषक ( चूहा ) माना गया है। सब देवताओं के साथ भला गणेशजी कैसे दौड़ सकते थे। देवर्षि नारद की सम्मति से गणेशजी ने भूमि पर "राम" नाम लिखा और उसकी सात प्रदक्षिणा कर ब्रम्हाजी के पास सबसे पहले पहुंच गए। पितामह ने उन्हें ही प्रथम पूज्य बताया क्योंकि "राम" नाम साक्षात श्रीराम का स्वरूप है और श्रीराम में ही सम्पूर्ण ब्रम्हांड निहित है। गणेशजी ने "राम" की प्रदक्षिणा कर समस्त ब्रम्हांड की परिक्रमा कर ली थी।
एक अन्य कथा के अनुसार गणेशजी ने भगवान शंकर एवं माता पार्वतीजी की प्रदक्षिणा की, क्योंकि "माता साक्षात क्षितेस्तनु" अर्थात माता साक्षात वसुंधरा है और पिता प्रजापति के स्वरूप हैं। इस प्रकार गणेशजी ने माता-पिता की भक्ति का आदर्श भी स्थापित किया।गणेशजी के जन्म की कथा भी बड़ी रोचक है। एक बार माता पार्वती ने स्नान पूर्व शरीर पर लगाए उबटन से एक बालक का पुतला बनाया और उसमें प्राण-प्रतिष्ठा कर उसे द्वारपाल के रूप में द्वार पर बैठा दिया तथा कहा कि जब तक वह स्नान करके नहीं आती, किसी को अंदर नही आने देना। इसी बीच गौरी पति शिवजी रे व भीतर प्रवेश करने लगे। माता की आज्ञा का पालन कर उस द्वारपाल रूपी बालक ने उन्हें रोका तो शिवजी ने क्रोधित होकर उसका सिर धड़ से अलग कर दिया।
स्नान के पश्चात जब पार्वतीजी बाहर आईं तो यह दृश्य देख कर अत्यंत दुःखी हुई और पुत्र हेतु विलाप करने लगीं। पार्वतीजी के इस विलाप से चिंतित सभी देवताओं ने शिवजी से बालक को पुनः जीवित करने की प्रार्थना की। पितामह ब्रम्हाजी ने शिवजी को परामर्श दिया कि उन्हें जो भी सबसे पहला जीव मिले उसका सिर काटकर बालक के धड़ से लगा दें तो यह बालक जीवित हो उठेगा। शिवजी को सबसे पहले हाथी का एक बच्चा मिला, उन्होंने उसका सिर विच्छेदन कर बालक के धड़ पर लगा दिया और बालक जीवित हो उठा। इस प्रकार वह गजानन हो गए।
गणेश पुराण में भाद्रपद मास की शुक्ल पक्ष की चतुर्थी को गणेशजी जन्म होना बताया गया है। कुछ ग्रंथों में भाद्रपद मास की कृष्ण पक्ष की कृष्ण पक्ष की चतुर्थी को मध्यान्ह में गणेशजी का प्रकट होना बताया गया है। वैसे भविष्य पुराण की मान्यता के अनुसार प्रत्येक चतुर्थी गणपति जयंती के समकक्ष ही मानी गई है और चतुर्थी व्रत का महत्व बताया गया है। संकष्ट चतुर्थी को संकट हरने के लिए गणेशजी की पूजा-अर्चना व व्रत का विशेष महत्व प्रतिपादित किया गया है।
गणेशजी की शारीरिक आकृति अत्यंत सारगर्भित है। उनका प्रत्येक अंग किसी न किसी रहस्य को लिए है। उनका छोटा कद इस बात का द्योतक है कि सरलता व नम्रता जैसे गुणों को आत्मसात कर अपने को छोटा मानने वाला ही महानता के उच्च शिखर पर पहुँच कर पूजा जाता है। वे बड़ा पेट होने के कारण लंबोदर कहलाते हैं। उनका बड़ा पेट यह दर्शाता है कि छोटी-बड़ी सभी प्रकार की समस्याएँ वे उदर में समेट लेते हैं। यह इस तथ्य को भी दर्शाता है कि निंदा व आलोचनाओं को सदैव पेट बड़ा कर हजम कर लिया जाए व न्याय पथ से न डिगा जाए।
गणेशजी शुपकर्ण कहलाते हैं। उनके सुप के आकार की भांति बड़े-बड़े कान इस बात के परिचायक हैं कि वे सबकी प्रार्थना सुनते हैं। वे इस बात की प्रेरणा भी देते हैं कि हमें हमेशा अपनी बात दूसरों पर न थोपते हुए सभी की बात सुनने का अभयस्त होना चाहिए। गजेंद्र बदन गणेशजी का गज मस्तक रूपी विशाल सिर दूरदृष्टि लिए विशाल दृष्टिकोण व गंभीरता का प्रतीक है।
गणेशजी वक्रतुंड हैं। उनकी लम्बी नाक या सूंड स्वाभिमान को दर्शाती है। यह वाचा तपस्या या वाणी नियंत्रण का संदेश भी देती है। उनकी छोटी-छोटी आँखें उनके सूक्ष्मदर्शी होने के गुण को प्रदर्शित करती है। वे इस बात की भी प्रतीक हैं कि समस्याओं के प्रति सुक्ष्मदृष्टि से चिंतन करने वाला वंदनीय होता है। एकदंत गणेशजी का बायाँ दाँत खंडित है, जो यह दर्शाता है कि वे राग-द्वेष से परे हैं, क्योंकि हाथी के दो दाँत राग-द्वेष के प्रतीक माने गए हैं। उनकी चार भुजाएँ अथक श्रम की परिचायक हैं।
विशालकाय गणेशजी का वाहन ( मूषक) चूहा माना गया है। यह छोटे प्राणियों के महत्व को परिलक्षित करता है। यह इस तथ्य को प्रदर्शित करता है कि तुच्छ जीवों के प्रति भी स्नेह का भाव रखा जाना चाहिए। कई विद्वानों ने मूषक को अंधकार का प्रतीक मानकर गणेशजी को सूरज ( प्रकाश ) की उपमा दी है। सूरज (प्रकाश) के उत्पन्न होते ही अंधकार उसके तले आ जाता है।
श्री गणेश का शाब्दिक अर्थ है जो समस्त जीव जाति के ईश हों। ऋग्वेद में कहा गया है कि गण का अर्थ समूह वाचक होता है। ईश का अर्थ स्वामी होता है। अर्थात जो समूह का स्वामी होता है उसे गणेश कहते हैं। वे शिवजी के गणों के अधिपति हैं। इसी कारण उन्हें गणपति भी कहा गया है। जगदगुरु शंकराचार्य ने अपने भाष्य में गणेशजी को ज्ञान और मोक्ष का अधिपति बताया है। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार देव, मानव और राक्षस तीन गण होते हैं और इन सबके अधिष्ठाता श्री गणेशजी हैं।
श्री गणेशजी अनेक पौराणिक आख्यानों, किंवदंतियों और लोक कथाओं के नायक हैं। इनमें उनकी मातृभक्ति, कर्तव्यनिष्ठा और बुद्धिचातुर्य का बखान है। वे शौर्य, साहस तथा नेतृत्व के परिचायक हैं। गणेशजी, लक्ष्मीजी व सरस्वतीजी के साथ पूजे जाते हैं। उन्होंने दोनों को आदर्श रूप में समन्वित कर रखा है। अपने बुद्धि चातुर्य के कारण वे प्रथम पूज्य हुए और ऋद्धि-सिद्धि के कारण संपत्ति के अधिष्ठाता भी हुए। इस प्रकार विद्या, बुद्धि और सम्पत्ति के एक साथ दाता श्री गणेशजी माने जाते हैं। ऐसा अद्भुत समन्वय श्री गणेशजी में ही दृष्टिगोचर होता है।
श्री गणेशजी की पूजन के लिए उनकी औपचारिक प्रतिमा का होना भी आवश्यक नही समझा गया है। कई अनुष्ठानों में खड़ी सुपारी को ही गणेशजी का प्रतीक मानकर पूजा की जाती है। लकड़ी, पत्थर यहाँ तक कि आटे के भी गणेशजी बनाए जाते हैं और उन्हें पूजा जाता है। गृहिणियाँ खाना बनाते समय आटा गूँथने के पश्चात उँगली से आटा निकाल कर गूँथे आटे के ऊपर लगती है जो गणेशजी का स्वरूप ही समझा जाता है। इसी प्रकार कच्चे मकानों में लीपने के लिए तैयार किये गए लिपन के ढेर पर भी पत्थर आदि के गणेशजी बैठाए जाते हैं। ऐसा घर मे "बरकत" (समृद्धि ) की भावना से किया जाता है। हालांकि शहरों व गाँवों में भी अब अधिकांश मकान पक्के बन गए हैं लेकिन जहाँ भी कच्चे मकान हैं, वहाँ आज भी यह विधि-विधान किया जाता है।
कई मांगलिक कार्यों में मंगल स्वरूप श्री गणेशजी का स्वस्तिक चिन्ह बनाकर उसके आसपास दो-दो खड़ी रेखाएँ बनाई जाती हैं। स्वस्तिक चिन्ह श्री गणपति का स्वरूप हैं और दो-दो खड़ी रेखाएँ उनकी पत्नी ऋद्धि-सिद्धि एवं पुत्र स्वरूप क्षेम व लाभ की प्रतीक मानी गई हैं। महिलाएँ कच्चे मकान में लीपने के पश्चात सर्वप्रथम श्री गणेश रूपी स्वस्तिक का ही निर्माण करती हैं।
भारतीय काव्य, साहित्य व संगीत भी श्री गणेशजी की स्तुति व वंदना से भरा हुआ है। लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने तो गणेशजी में जन-जन की प्रगाढ़ आस्था को समझ कर गणेश स्थापना समारोह के माध्यम से भारतीय लोक जीवन को विदेशी दासता के विरुद्ध स्वाधीनता का पाठ पढ़ाया। उनके द्वारा आरंभ किया गया गणेशोत्सव आज कई स्थानों पर भव्य धार्मिक व सांस्कृतिक समारोह का रूप ले चुका है। श्री गणेश चतुर्थी के अवसर पर हम लोकमंगल के देवता श्री गणेशजी की वंदना कर भारत के भविष्य के लिए मंगल कामना करते हैं।