वर्ष 2021 में आयोजित COP26 में भारत ने 2070 तक नेट जीरो कार्बन एमिशन हासिल करने का लक्ष्य रखा है, जिसके लिए सरकार तरह-तरह के उपाय कर रही है। इन्हीं में से एक है जस्ट ट्रांज़िशन। दरअसल यह एक प्रक्रिया है, जिसके अंतर्गत देश की सभी कोयला खदानों और विद्युत परियोजनाओं में कोयले की निर्भरता को खत्म कर के जीरो एमिशन हासिल करना है। लेकिन इसका प्रभाव लोगों के रोजगार, उनके आम जीवन पर कैसे पड़ेगा, यह सोचने वाली बात है।
पर्यावरण पर कार्यरत क्लाइमेट ट्रेंड और अन्र्स्ट एंड यंग ने मिलकर हाल ही में एक रिसर्च किया। यह रिसर्च भले ही झारखंड पर आधारित है, लेकिन बात चाहे छत्तीसगढ़ की हो, या कोलकाता की या फिर ओछिशा या महाराष्ट्र की, कोयला खदानों को बंद करने की प्रक्रिया में विशेषज्ञों के ये सुझाव हमेशा कारगर होंगे। आइये जानते हैं भारतीय प्रबंध संस्थान, भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, राज्य सरकारों, आदि के विशेषज्ञों व पर्यावरणविदों ने इस पर क्या सुझाव रखे हैं।
क्या है जस्ट ट्रांज़िशन?
जस्ट ट्रांज़िशन उस प्रक्रिया को नाम दिया गया है, जो नेट जीरो एमिशन हासिल करने के लिए कोयला आधारित विद्युत परियोजनाओं, कोयला खदानों, आदि को बंद करने के लिए तैयार की गई है। सही मायने में दखा जाये, तो प्रक्रिया को अंतिम रूप अभी तक नहीं दिया गया है। नीति आयोग व झारखंड सरकार ने इस पर समिति का गठन तो कर दिया है, लेकिन मामला रोजगार और राज्यों की अर्थव्यवस्था को होने वाले संभावित नुकसानों पर जाकर टिक जाता है।
दरअसल COP27 के दौरान, नवंबर 2022 में यूनाइटेड नेशंस फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज - UNFCC के सामने देश के लॉन्ग टर्म में कम उत्सर्जन वाली विकास सम्बन्धी रणनीति पर आधारित एक राष्ट्रीय रिपोर्ट जारी की। साथ ही भारत ने अपने नेशनली डीटरमिंड कंट्रीब्यूशंस - NDC में 2030 तक अपनी नीतियों और कार्यशैली में कोयले के फेज डाउन की अपरोच को प्रतिबिंबित करने की बात कही। जिसमे फॉसिल फ्यूल ( जीवाश्म ईंधन) से क्लीन एनर्जी में बदलाव लाने के लिए, इसके हर पक्ष को समाहित किया हुए, प्रकृति के अनुकूल एक न्यायपूर्ण, टिकाऊ (सस्टेनेबल) और सहज मार्ग प्रशस्त करने की बात पर ज़ोर दिया। अपने NDCs के ज़रिए भारत ग़ैर फॉसिल फ्यूल्स आधारित ऊर्जा संसाधनों से कुल मिलाकर 50% इलेक्ट्रिक पावर स्थापित क्षमता को पूरा करने के लिए और 2005 के स्तर से अपने जीडीपी की उत्सर्जन तीव्रता ( एमिशन इंटेंसिटी) को 45% तक कम करने के लिये प्रतिबद्ध है। भारत ने विभिन्न घरेलू नीतिगत उपाय जारी किए हैं, जो कोयले को चरणबद्ध तरीके से कम करने के लक्ष्य के अनुरूप है।
ऐसे में झारखंड पर किए गए अध्ययन पर आधारित क्लाइमेट ट्रेंड की रिपोर्ट, "Livelihood opportunities for a Just Transition in Jharkhand" बेहद प्रासंगिक हो जाती है। ज़रा सोचिए अगर यहां पर कोयले की खदानों पर ताला पड़ता है, तो कितने लोग बेरोजगार हो जाएंगे। आपको बताना चाहेंगे कि भविष्य की चिंता अभी से यहां के लोगों को सताने लगी है और ज्यादातर लोग कोयला निकालने के पेशे को छोड़ कर कृषि, स्वरोजगार, आदि में जाना चाहते हैं।
रिपोर्ट के अनुसार आस-पास रोजगार के अन्य अवसरों की कमी के कारण एक तिहाई (33%) श्रमिकों ने एक दशक से अधिक समय से कोयला क्षेत्र में काम करने की 'सूचना दी है। आधिकारिक अनुबंध की अनुपलब्धता के कारण, कोयला क्षेत्र के अधिकांश श्रमिकों की नौकरियां असुरक्षित पाई गई हैं। संगठित कोयला क्षेत्र के श्रमिकों के लिए भुगतान चक्र ज्यादातर सुसंगत था, क्योंकि उन्हें मासिक वेतन मिलता था, जबकि असंगठित कोयला क्षेत्र के श्रमिकों के लिए रुझान भिन्न थे, जिन्हें ज्यादातर दैनिक या साप्ताहिक आधार पर वेतन मिलता था।
स्वास्थ्य संबंधी विकारों से जूझते कोयला श्रमिक
कोयला क्षेत्र के श्रमिकों ने तपेदिक, एस्बेस्टॉसिस, व्यावसायिक कैंसर, क्रोनिक ऑब्सट्रक्टिव पल्मोनरी डिजीज, सिलिकोसिस आदि जैसी बीमारियों से पीड़ित होने का संकेत दिया। सभी श्रेणियों के श्रमिकों ने धूल, अन्य सुरक्षा उपायों की कमी और अन्य मुद्दों से संबंधित मुद्दों को उठाया।
भारत सरकार के कोयला मंत्रालय और विश्व बैंक ने अनुमान लगाया है कि 56 बड़ी खुली खदानें 2023-24 तक 1 बिलियन टन कोयले के उत्पादन लक्ष्य को पूरा कर लेंगी। यानि की निकटतम भविष्य में लाखों लोग कोयले की खदानों में जाकर अपने फेफड़ों को गलायेंगे। ऐसी परिस्थिति में अगर कोयला खदानों को बंद किया जाता है तो देश के इन राज्यों में करीब 30 मिलियन मतलब 3 करोड़ लोगों के रोजगार पर खतरा मंडरा सकता है।
रिपोर्ट रिलीज़ करने के बाद भारतीय प्रबंध संस्थान की प्रो. रूना सरकार ने कहा कि यह मामला केवल रोजगार का नहीं बल्कि कई पुश्तों से खदानों में काम कर रहे लोगों की पहचान का भी है। भले ही लोग कृषि में जाने की बात कर रहे हैं, लेकिन सरकार का यह दायित्व बनता है कि उन्हें रोजगार के कई अन्य विकल्प भी दें। इस ट्रांज़िशन की कीमत उससे कहीं अधिक है, जितना हम अंदाज़ा लगा रहे हैं।
इस मौके पर पॉलिसी डेवलपमेंट एडवाइज़री ग्रुप के लीड रिसर्चर कुणाल सिंह ने कहा कि इस प्रक्रिया में कई दशक लगने वाले हैं। जर्मनी को ही ले लीजिये, ग्रीन एनर्जी तक जाने में उसे 60 साल लग गये। भारत के हर राज्य की स्थिति दूसरे से अलग है, ऐसे में सरकार को एक सुदृढ़ नीति के साथ इस कार्य में आगे बढ़ना चाहिए।
सेंट्रल इंस्टिट्यूट ऑफ माइनिंग एंड फ्युएल रिसर्च और काउंसिल ऑफ साइंटिफिक एंड इंडस्ट्रियल रिसर्च के चीफ साइंटिस्ट डा. पिनाकी सरकार का कहना है कि केवल औद्योगिकीकरण कर देने मात्र से रोजगार सृजित नहीं हो जाता है। जिस भी क्षेत्र में कोयले की खदानें बंद करने की योजना है, वहां के लोगों के हुनर के हिसाब से उनके स्किल डेवलपमेंट की जरूरत है, ताकि अगर श्रमिक अपना पेशा छोड़ कर दूसरे किसी पेशे में जाते हैं, तो वहां उन्हें आर्थिक व सामाजिक दिक्कतों का सामना कम से कम करना पड़े।
रिपोर्ट रिलीज़ करने के बाद क्लाइमेट ट्रेंड की पर्यावरणविद आरती खोसला ने कहा कि आने वाले समय में कोयले की डिमांड व प्रोडेक्शन दोनों बढ़ेंगे। ऐसे में सरकार को टोटल फेज़ आउट के लिए चरणबद्ध तरीके से काम करने की जरूरत है।
रिपोर्ट में दिए गए सुझाव
> राज्य-स्तरीय नीति निर्माता, राज्य में मौजूद उद्योगों के साथ कोयला क्षेत्र के श्रमिकों के कौशल सेट की मैपिंग करें। जिसके पास जो कौशल है, उसी के हिसाब से उसका स्किल डेवलपमेंट किया जाना चाहिए।
> खानों के बंद होने से असंगठित श्रमिकों और स्थानीय समुदाय पर पड़ने वाले प्रभाव को ध्यान में रखते हुए, 'वर्ष 2009 से पहले बंद/ परित्यक्त / बंद खानों के प्रबंधन के लिए दिशानिर्देश' को अद्यतन किया जाना चाहिए। इसके अलावा, दिशा-निर्देशों में बंद खानों में और उसके आसपास भूमि के पुनउपयोग की योजना बनाते समय रोजगार सृजन पर विचार किया जा सकता है।
> कोयला कंपनियों के साथ संशोधित दिशा-निर्देशों का संचालन करना जो इसकी प्रभावशीलता का परीक्षण करने के लिए खदानों को बंद करने की प्रक्रिया में हैं।
> सरकार आदेश के माध्यम से निजी कंपनियों के लिए यह अनिवार्य कर सकती है कि वे कम से कम एक साल पहले सरकार को सूचित करें कि वे किस खदान को बंद करने की योजना बना रहे हैं ताकि विस्थापित श्रमिकों के पुनर्वास के लिए समय पर कार्रवाई की जा सके।
> कोयला खदानों का संचालन करने वाली निजी कंपनियों को सरकारी दिशा-निर्देशों का पालन करना चाहिए और सरकार द्वारा अनुदेशों को अनिवार्य किया जाना चाहिए।
> कोयला क्षेत्र के कर्मचारी अगर सरकार के प्रशिक्षण, कौशल विकास और शिक्षा कार्यक्रमों में भाग लेते हैं तो उन्हें उनके अनुरूप रोजगार के अन्य विकल्पों के बारे में जानकारी दी जानी चाहिए।
> ऊर्जा परिवर्तन के लिए आवश्यक निवेश की जरूरत है। निवेश के स्तर की मात्रा निर्धारित कर धन के उन स्रोतों की पहचान करनी चाहिए, जहां से राज्य की आमदनी बढ़ सकती है।
> निजी और सार्वजनिक बैंक निजी क्षेत्र और निगमों को संबंधित परियोजनाओं में निवेश करने के लिए प्रोत्साहित करने की जरूरत है।