UPSC: एक समय था जब भारतीय विदेश नीति वैश्विक पटल पर या तो अपमानित महसूस करती थी या भारत के बारे में पश्चिम की गलत धारणाओं और नकारात्मक टिप्पणियों के बारे में शिकायती बाबू के अंदाज में रहा करती थी। अब हमारे पास सशक्त विदेश नीति है‚ जो लाचार कतई नहीं है। ऐसा विदेश मंत्री भी है‚ जो ऐसी भाषा में जवाब देना जानता है‚ जिसे विदेशियों द्वारा बेहतर ढंग से समझा जा सके। जाहिर है कोविड के बाद वैश्विक मंदी के दौर में यूरोप के लिए रूस और यूक्रेन का युद्ध आग में घी का काम कर रहा है। ऐसे में भारत का बाजार और भारत का साथ‚ दोनों यूरोप के लिए फायदेमंद रहने वाले हैं।
2022 में जब कोविड ने दस्तक दी और पूरी दुनिया घरों में बंद हो गई तब सबकी निगाहें भारत जैसे अव्यवस्थित और अनियंत्रित जनसंख्या वाले देश पर थी। एक तरफ दुनिया को लग रहा था कि भारत में बहुत ही जान-माल की क्षति होगी और दूसरी तरफ इसका अंदाजा भी लगाया जा रहा था कि लॉकडाउन का असर इतना भवायह होगा कि भारत की अर्थव्यवस्था को पटरी पर आने में शायद एक दशक से ज्यादा का समय लग जाए। परिणाम क्या हुआ हैॽ सबके सामने है‚ और उसके बारे में ज्यादा लिखने बताने की जरूरत अब नहीं रह गई है। इन बातों का जिक्र हमने इसलिए किया क्योंकि जब भारत की विदेश नीति की चर्चा की जाएगी तो भारत की अंदर की मजबूती पर गौर करना जरूरी हो जाएगा। अगर दुनिया को लग रहा है कि भारत की मौजूदा विदेश नीति अब बहुत आक्रामक हो गई है‚ तो उसके लिए समझना होगा कि इस आक्रामकता की वजह क्या है।
कोविड की तीन तीन लहरों के बाद जब से दुनिया का बाजार खुला है‚ और वैश्विक मंचों पर भारत को अपनी बात रखने का मौका आया है‚ भारत ने पुरजोर तरीके से सधे हुए अंदाज में अपने नागरिकों के हितों की बात को तवज्जो दी है‚ और किसी भी कीमत पर नहीं झुकने का संकेत भी दिया है। जब से पश्चिमी देश रूस और यूक्रेन के बीच चल रहे युद्ध की जद में आए हैं‚ भारत ने दोनों देशों से बराबर दूरी बनाकर और अपने फायदे का ख्याल रखते हुए रूस के साथ व्यापारिक संबंधों पर अमेरिका की चौधराहट को अनसुना कर दिया है।
हालांकि उससे खार खाए अमेरिका ने हाल के दिनों में पाकिस्तान से फिर पींगें बढ़ानी शुरू कर दी हैं‚ लेकिन चीन को साधने की जरूरत महसूस करते हुए अमेरिका भारत को नकारने की स्थिति में नहीं है। रूस और यूक्रेन‚ दोनों को भारत ने बार-बार यह कहकर कि युद्ध कोई समाधान नहीं है‚ अपनी छवि यूरोपीय देशों की नजर में निश्चित तौर पर मजबूत राष्ट्र के तौर पर स्थापित की है। ऐसा नहीं है कि पहली बार भारत ने विदेश नीति के तौर पर अपनी मजबूती दिखाई है‚ लेकिन ऐसा जरूर है कि गाहे बेगाहे दिखने वाली मजबूती अब लगातार भारत के कामकाज के तौर-तरीकों से दिखाई देने लगी है।
भारत के मौजूदा विदेश मंत्री का अनुभव भी भारत की हाल की विदेश नीति का एक महत्वपूर्ण कारक है। 2014 में जब नरेन्द्र मोदी ने प्रधानमंत्री के तौर पर शपथ ली थी उस वक्त एस जयशंकर अमेरिका में भारत के राजदूत हुआ करते थे। वे रूस और चीन में भी भारत के राजदूत रह चुके हैं‚ और पूर्व विदेश मंत्री सुषमा स्वराज के साथ काम करने का भी लंबा अनुभव है। विदेश मंत्री का बयान सरकार की ओर से दिया गया आधिकारिक बयान ही होता है‚ लेकिन वो एस जयशंकर के अनुभव का परिणाम है कि भारत को पिछले कुछ सालों में अपने किसी वैश्विक बयान पर आलोचना नहीं झेलनी पड़ी है। बल्कि परिणाम यह निकला है कि पड़ोसी दुश्मन देश के प्रधानमंत्री रहते हुए और हटने के बाद भी लगातार इमरान खान भारत की विदेश नीति की दुहाई देते रहते हैं।
रूस से तेल खरीदने की बात पर अमेरिका में पत्रकारों के सवाल के जवाब में भारतीय विदेश मंत्री का दो टूक बयान कि हमें जैसा जहां से उचित लगेगा हम तेल खरीदेंगे और यूरोप को देखना चाहिए कि जितना तेल रूस से हम एक महीने में खरीदते हैं‚ उतना यूरोप एक दोपहर में खरीद लेता है‚ तो वो हमें कैसे रु कने की बात कह सकता है‚ ने भारत की विदेश नीति के भविष्य को स्पष्ट कर दिया था। एस जयशंकर ने कई मौकों पर साफ किया है कि भारत अब दुनिया के दूसरे देशों को खुश करने की बजाय‚ हम कौन हैं की नीति को अपनाने में विश्वास रखने लगा है। दुनिया की दूसरी बड़ी आबादी और पांचवी बड़ी अर्थव्यवस्था वाले देश का आत्मविश्वास ऐसा होना ही चाहिए।
ब्रिटेन के पूर्व प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन भारत के साथ मुक्त व्यापार के करार पर राजी हो चुके हैं‚ और जब उन्होंने यह तय किया था 2022 की दीवाली तक भारत और ब्रिटेन के बीच व्यापार की नई नीतियों को लागू किया जाएगा तब मौजूदा प्रधानमंत्री लिज ट्रस विदेश मंत्री हुआ करती थीं। हालांकि वर्तमान गृह मंत्री इस करार में बाधा डालने की कोशिश कर रही हैं‚ लेकिन यह कितना हो पाएगा आने वाले दिनों में साफ हो जाएगा। हाल में विदेश मंत्री जयशंकर ने इंग्लैंड़ और अर्जंटीना के बीच विवादित फॉकलैंड़ द्वीप पर भी बात की। यहां उन्होंने फॉकलैंड़ की जगह उसे मेलविनस द्वीप कह कर संबोधित किया। दरअसल‚ फॉकलैंड़ या मेलविनस द्वीप दक्षिण-पश्चिम अटलांटिक महासागर में स्थित है।
ब्रिटेन के लोग इसे फॉकलैंड़ द्वीप कहते हैं जबकि अर्जंटीना के लोग मेलविनस द्वीप। दोनों देशों के बीच इसकी संप्रभुता को लेकर विवाद है‚ यह जानते हुए भी जब अर्जंटीना ने भारत के एलसीए तेजस लड़ाकू विमान को खरीदने में रुûचि दिखाई‚ तो एस. जयशंकर ने उसे स्वीकार कर लिया। ॥ इस बीच‚ जर्मनी की विदेश मंत्री एनालेना बेरबॉक ने जब पाकिस्तान के विदेश मंत्री बिलावल भुट्टो के साथ चर्चा में कश्मीर का जिक्र छेड़ा तब भारत ने तुरंत प्रतिक्रिया देते हुए कश्मीर के मामले से दूर रहने की हिदायत दे डाली। नतीजा हुआ कि भारत में जर्मनी के राजदूत को सफाई देनी पड़ी कि बेरबॉक का बयान जर्मनी का बयान नहीं है‚ और कश्मीर का मुद्दा भारत और पाकिस्तान के बीच का मामला है।
भारतीय विदेश मंत्री के हालिया यूरोप दौरों ने भारत की नई विदेश नीति को दुनिया के सामने रखने में मदद की है। पिछले दिनों अपनी यूरोपीय यात्रा मे स्लोवेनिया पहुंचे जयशंकर ने भारत-प्रशांत क्षेत्र में नियम आधारित व्यवस्था के लिए यूरोप के साथ साझेदारी पर जोर दिया। असल में इस क्षेत्र में चीन की आक्रामकता को रोकने के लिए कई यूरोपीय देश भारत से अपना दखल बढ़ाने को कह रहे हैं। वे इस तरह चीन के बरक्स क्षेत्र में संतुलन स्थापित करना चाहते हैं। भारतीय विदेश मंत्री ने भी यात्रा के दौरान जोर देकर कहा कि हिंद-प्रशांत क्षेत्र में यूरोपीय संघ के पास भारत जैसा भरोसमंद दोस्त है। स्लोवेनिया के बाद क्रोएशिया पहुंचे जयशंकर की अगवानी प्रधानमंत्री आंद्रेज प्लेनकोविच ने की। दोनों के बीच द्विपक्षीय सहयोग बढ़ाने पर चर्चा हुई और भारत ने क्रोएशिया में दवा‚ डिजिटल और इंफ्रास्ट्रक्चर जैसे क्षेत्रों में निवेश करने में दिलचस्पी दिखाई। जयशंकर और प्लेनकोविच के बीच रक्षा‚ पर्यटन‚ कोविड के बाद रिकवरी और आतंकवाद को रोकने के लिए आपसी सहयोग पर भी चर्चा हुई।
क्रोएशिया मध्य यूरोप का ऐसा देश है‚ जिसके पास मजबूत समुद्रीय अर्थव्यवस्था है। दूसरी तरफ‚ पूर्वी यूरोपीय देश भी भारत के साथ संबंधों का दायरा बढ़ाने में भी दिलचस्पी अब खासी दिलचस्पी रखते हैं। डेनमार्क पहुंच कर जयशंकर ने कहा कि डेनमार्क भारत का 'अनोखा पार्टनर' है। यह अकेला देश है‚ जिसके साथ भारत की ग्रीन स्ट्रैटिजिक पार्टनरशिप है। यह साझेदारी भारत में पवन ऊर्जा क्षेत्र के लिए काफी मददगार साबित हो सकती है। डेनमार्क 1979 के दशक से ही पवन ऊर्जा में निवेश कर रहा है। आज अपनी जरूरत की 50 प्रतिशत बिजली इसी से हासिल करता है। हमें इस बात को ध्यान में रखना चाहिए कि जिस तेजी से भारत की आबादी बढ़ रही है‚ उससे ऊर्जा की मांग में भी इजाफा हो रहा है।
ऐसे में डेनमार्क के साथ साझेदारी से भारत को काफी फायदा हो सकता है। ये सभी यूरोपीय देश भारत को चीन की तुलना में सुरक्षित आÌथक सहयोगी मानते हैं। एक समय था जब भारतीय विदेश नीति वैश्विक पटल पर या तो अपमानित महसूस करती थी या भारत के बारे में पश्चिम की गलत धारणाओं और नकारात्मक टिप्पणियों के बारे में शिकायती बाबू के अंदाज में रहा करती थी। अब हमारे पास सशक्त विदेश नीति है‚ जो लाचार कतई नहीं है। हमारे पास ऐसा विदेश मंत्री भी है‚ जो ऐसी भाषा में जवाब देना जानता है‚ जिसे विदेशियों द्वारा बेहतर ढंग से समझा जा सके। जाहिर है कोविड के बाद वैश्विक मंदी के दौर में यूरोप के लिए रूस और यूक्रेन का युद्ध आग में घी का काम कर रहा है। ऐसे में भारत का बाजार और भारत का साथ‚ दोनों यूरोप के लिए फायदेमंद रहने वाले हैं।