भारत को आजाद हुए 75 साल होने जा रहे हैं। ऐसे में आज हम जिस दौर में जी रहे हैं वह काफी उथल-पुथल से भरा हुआ दौर है। जिसमें हम प्रगति भी कर रहे हैं तो कई ऐसी घटनाएं भी हमारे समाज में घट रही हैं जो हमें यह सोचने पर मजबूर करती हैं कि क्या हम सच में प्रगति कर रहे हैं। जहां एक ओर महिलाएं एवरेस्ट जैसे ऊंचे पहाड़ों पर भारत का तिरंगा लहरा रही हैं, वहीं अखबारों में बलात्कार की खबरें भी आए दिन छप रही हैं। ऐसे में सवाल यह खड़ा होता है कि क्या इस आजाद देश में सच में महिलाएं आजाद हैं? आजादी को क्या वे महसूस करती हैं? किस प्रकार की आजादी वे चाहती हैं? हमारा समाज किस ओर जा रहा है? हम कैसी प्रगति कर रहे हैं? ऐसे कौन से कारण हैं कि आज भी महिलाएं कई तरह की बेडिय़ों में खुद को जकड़ा हुआ पाती हैं? आइये स्वतंत्रता दिवस पर परिचर्चा में कुछ ऐसे ही सवालों के जवाब जानते हैं।
दीपिका मीना, फोटोग्राफर
बेशक कागज़ों में हम आजाद हैं, लेकिन अभी भी समाज में ऐसा बहुत कुछ घट रहा है जिसके बारे में सोचकर हम खुद को आजाद नहीं मान सकते। शहरों में स्थिति फिर भी काफी सुधर चुकी है लेकिन ग्रामीण इलाकों में आज भी औरत आजाद नहीं है। जिस समाज में हम रह रहे हैं उसमें कम से कम लड़कियों को कुछ मूलभूत स्वतंत्रताएं तो मिलनी ही चाहिए, जैसे - अपने भाई की तरह स्कूल जाने की आजादी। कुछ सीखने का मन हो तो उसे सीख पाने की आजादी। अपने लिए सोचने व निर्णय लेने की आजादी। अक्सर देखती रही हूं कि कला के क्षेत्र में आने से लड़कियों को हमेशा से रोका जाता रहा है। आज की लड़कियां हवाई जहाज चला रही हैं। चांद पर जा चुकी हैं। हर साल 10वीं, 12वीं कक्षा में लडक़ों से ज्यादा अच्छा रिजल्ट लाकर दिखाती हैं, फिर भी उनकी योग्यता पर शक क्यों? यह माता-पिता की जिम्मेदारी है कि वे बच्चों में भेद न करें। जिस प्रकार लडक़े हैं वैसी ही लड़कियां भी हैं। लड़कियों को भी अपना कार्यक्षेत्र चुनने की आजादी दें। नौकरी करने दें ताकि वे आत्मनिर्भर बन सकें। बेटियों को सही राह अवश्य दिखाएं लेकिन हर काम में रोकटोक ठीक नहीं। मैं अपने शागिर्दों को यही बोलती हूं कि आप अच्छा गा रहे हो, कई घंटे रियाज़ भी करते हो अच्छी बात है लेकिन पढ़ाई बहुत ज्यादा जरूरी है। पढ़ाई के साथ-साथ आप अपना हुनर निखारें। जब सभी लोग महिलाओं की आजादी और उसकी इच्छाओं का ख्याल रखेंगे। उसके बारे में सोचेंगे तभी इस दिशा में सुधार आ पाएंगा। महिलाएं सच में समाज और परिवार में खुद को आजाद महसूस कर सकेंगी।
आरती टैगोर, शिक्षक
आज जब समाज की ओर देखती हूं तो इस बदलाव को देखकर बहुत अच्छा लगता है कि आज महिलाएं हर दिशा में आगे बढ़ रही हैं। नई-नई ऊंचाईयों को छू रही हैं। मुझे मेरे परिवार ने पढऩे की आजादी दी, अपने लिए जीवन में निर्णय लेने की आजादी दी। मैं मानती हूं कि महिलाओं को सबसे ज्यादा जरूरत है दिमागी आजादी की है, यानी खुद अपने लिए सोचने की आजादी। मेरे पास कई महिलाएं आती हैं जब मैं उनसे मिलती हूं तो लगता है कि उन्हें कोई और संचालित कर रहा है। वे जीवन में वे काम कर रही हैं जो दूसरों ने उनके लिए तय किए हैं। ऐसा नहीं होना चाहिए। इस समय सबसे ज्यादा जरूरत यह है कि ज्यादा से ज्यादा औरतों को शिक्षित किया जाए। जो औरतें अधिक पढ़ी लिखी नहीं हैं वे भी आज घर बैठे पढ़ सकती हैं। जैसे जैसे समाज में शिक्षा का स्तर बढ़ेगा वैसे-वैसे यह स्त्री पुरुष का भेदभाव भी कम होता जाएगा। यदि मां पढ़ी-लिखी होगी तो आगे का समाज भी फिर उसी खुली सोच से आगे बढ़ेगा। जो औरतें आज भी पारिवारिक जिम्मेदारियों में उलझी हुई हैं और अब तक कुछ नहीं कर पाईं। उन्हें मैं कहना चाहूंगी कि एक-एक कदम आगे बढ़ाएं अभी भी देर नहीं हुई है। अपने लिए समय निकालें। अपने दोस्त बनाएं। फिर सभी सेहलियां मिलकर कुछ नया करने की कोशिश करें। इससे आप अपनी पारिवारिक जिम्मेदारियों के साथ-साथ अपने लिए भी कुछ सोच सकेंगी और खुद को आजाद महसूस करेंगी।
बिमल भिलवारा, लेखक
एक स्त्री होने के नाते मुझे लगता है कि लड़ाई अभी भी बाकी है। आवश्यक भी है क्योंकि आज भी जब तक बेटी समय पर घर न लौट आए तब तक एक मां का दिल बैठा रहता है। किसी भी उम्र की औरत को समाज में अकेले रहने और आजादी से घूमने में डर लगता है। कई तरह के डर उसके मन में हमेशा चलते रहते हैं। सबसे बड़ा डर अपनी सुरक्षा को लेकर उसके मन में रहता है। कान में सोने की बाली या गले में चेन है तो भी डर, कहीं कोई झपटकर न ले जाए। या उसे कोई किसी भी तरह का नुक्सान न पहुंचा दे। इसलिए वह घर से बाहर जैसे ही निकलती है बिल्कुल सर्तक व सजग रहती है। जब भी हम स्त्री स्वतंत्रता की बात करते हैं तो मुझे लगता है कि यह पुरुष मानसिकता के साथ लगातार चलने वाला संघर्ष है। इस संघर्ष के अच्छे परिणाम भी आ रहे हैं। आज समय तेजी से बदल भी रहा है साथ ही पुरुषों की मानसिकता में भी बदलाव आ रहा है। मैं मानती हूं कि महिलाओं को सबसे पहले तो अपने बारे में सोचने की आजादी होनी चाहिए। वह क्या सोचती है क्या करना चाहती है? निसंकोच उसे अपने घर में बताने की आजादी होनी चाहिए। सबसे बड़ी जरूरत तो यह है कि उसे अपनी देह से बाहर आकर सोचना होगा।
आरुषी भटनागर, आरजे
मेरे लिए आजादी का अर्थ है अपनी सोच व विचारों के साथ अपना जीवन जीना। यानी अपनी सोच और विचारों को अपने जीवन में अमल में लाने का मतलब मेरे लिए आजादी है। अपने लिए खुद निर्णय लेने की आजादी। अपनी रुचि के अनुसार अपना कैरियर सेट करने की आजादी। कई बार लोग औरत को आजादी मिलनी चाहिए, इस बात को गलत मानते हैं वे सोचते हैं कि अगर औरतों को ज्यादा आजादी मिली तो वह अपनी जिम्मेदारियों को ठीक से नहीं निभा सकेगी। पूरी तरह आजाद हो जाएगी, घर परिवार पर ध्यान नहीं देंगी। लेकिन ऐसा बिल्कुल नहीं है। हर औरत के लिए सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण उसका घर होता है। उसका परिवार होता है। पति और बच्चे होते हैं। मैं मानती हूं कि जब आप अपने घर की औरतों को उनके अनुसार जीने की आजादी देते हैं तो उनके मन में अपने घरवालों के प्रति सम्मान और ज्यादा बढ़ जाता है। वे अपनी जिम्मेदारियों को और बेहतर तरीके से निभाने का प्रयत्न करती हैं और बहुत खुशी खुशी करती हैं। जब किसी औरत को हर काम में रोका जाता है उसके विचारों और आइडिया को नहीं सुना जाता तो उसके मन में अपने घर वालों के प्रति खीज पैदा होती है। जिस वजह से वह अपने घर वालों को वह सम्मान नहीं दे पाती जो देना चाहिए। बेशक वह बाहर यह व्यक्त ना करे। मुझे मेरे जीवन में हर तरह की आजादी मिली। शादी के बाद ससुराल में भी मैं अपना जीवन अपने अनुसार जी सकी। इसलिए आज मेरे मन में अपने परिवार के हर सदस्य के लिए प्यार व सम्मान है। क्योंकि उन्होंने मेरी सोच और स्वंतत्रता का सम्मान किया। मुझे आगे बढऩे से नहीं रोका, बल्कि मेरा साथ दिया। मेरा दो साल का बेटा है। मैं काम भी करती हूं और अपने घर की जिम्मेदारियों को भी अच्छी तरह निभा रही हूं।
रूपा जोशी, हाउस वाइफ
आज भी सही मायने में हम खुद को आजाद नहीं बोल सकते। अंग्रेज चले गए लेकिन आज भी पाश्चात्य संस्कृति हम पर हावी है। आज भी लोगों की मनस्थिति पश्चिमी प्रभाव में जकड़ी हुई है। जिस भारतीय कल्चर और मूल्यों को हम सोचते थे कि आजादी के बाद हम फिर से संजोकर रख सकेंगे उसे हम ठीक से बचा नहीं पा रहे हैं। जिस दिशा में हमें आगे बढ़ना था उस दिशा में हम आगे नहीं बढ़ रहे हैं। हमारी मनस्थिति हमें सही दिशा में सोचने नहीं दे रही। आप देखिए हमारे देश में सबसे पहले शिक्षा का प्रचार-प्रसार होना चाहिए था लेकिन हम देखते हैं कि एक रिक्क्षा चलाने वाले के पास शिक्षा नहीं है लेकिन हाथ में मोबाइल है। लोगों के पास गाड़ी है लेकिन चलाने का सलीका नहीं है। जरा किसी की गाड़ी क्या टकरा जाए आप भाषा देखिए क्या इस्तेमाल करते हैं। रोज अखबार क्राइम की खबरों से भरे होते हैं। दिखावा इस कदर बढ़ रहा है कि कौन अपने बच्चों को कितने महंगे स्कूल में पढ़ा रहा है इसकी होड़ मची है। बजाय यह सोचने के कि कौन सा स्कूल अच्छी शिक्षा दे रहा है। क्या इस दिशा में देश को आगे ले जाने के लिए हमारे बुर्जुगों ने देश को आजाद कराया था? क्या हम एक ऐसे समाज में नहीं जी रहे जहां जमीनी स्तर पर कम काम हो रहा है। अब ऐसे में हम क्या उम्मीद कर सकते हैं कि औरतों को वो आजादी मिल रही होगी जिसकी वे हकदार हैं?
ईशा फातिमा, डांसर
मेरा डांस स्कूल है। मैं बच्चों को डांस भी सिखाती हूं। कुछ बच्चे दिल से डांस सीखने आते हैं तो कुछ बच्चे बेमन से भी डांस सीखते हैं। बात करने पर पता चलता है कि मां को कथक बहुत पसंद है इसलिए वे चाहती हैं कि बच्ची कथक सीखे। यह क्या है? क्योंकि आपके माता-पिता ने आपको आपके मन का काम नहीं करने दिया। अब वही आजादी आप अपने बच्चों से छीन रही हैं। हो सकता है आपका बच्चा गाने, कोई इंस्टूमेंट बजाने में अच्छा हो या कोई और हुनर उसके अंदर हो। आजादी तो सभी को चाहिए, बच्चों को भी। क्योंकि एक स्तर के बाद ही बच्चा यह जान पाता है कि वह क्या करना चाहता है। ऐसे में पहले बच्चों को सही से पढऩे दें और फिर उन्हें खुद तय करने दें कि वे क्या करना चाहते हैं। तभी सही मायने में हम सोचने की आजादी और मन का काम करने की आजादी की बात कर सकते हैं। यह बात भारतीय सोच में समाई हुई है कि लडक़ी है थोड़ा पढ़ाओ और फिर शादी कर दो। मेरी कई स्टूडेंट हैं जो कहती हैं, मम्मी बोलती हैं क्या करोगी डांस सीखकर शादी के बाद तो यह सब छोडऩा पड़ेगा। यह सोच सही नहीं है। जिस प्रकार एक लडक़े को यह अधिकार है कि वह पढ़-लिख कर अपने भविष्य के बारे में सोच सकता है। उसी प्रकार लडक़ी को भी अधिकार मिलना चाहिए कि वह अपने भविष्य के बारे में सोचे और तय करे कि उसे क्या बनना है।